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अभी आँख खुली नहीं थी और सपने आँखों को छोड़ कर नहीं जाना चाह रहे थे की पिताजी की आवाज ने सरे मजे को किरकिरा कर दिया। किसी बात पे बहस हो गयी थी शयद, मसला भी गंभीर मालूम पड़ता था अन्यथा पिताजी सुबह सुबह केवल मंदिर की घंटी बजा कर ही नींद को तोडा करते थे। कुछ देर आँखों को मसला और जब आँख खुली तो पिताजी सामने ही दिखई दे गए। आँखे खोल कर क्या देखता हु की पिताजी एक पांच सौ का का नोट हाथ में उठाये कुछ कह रहे है। कुछ कह कर वह शांत हुए तो कमरे का चक्कर काटने लगे। दो चार चक्कर लगाने के पश्चात रुके और हमारी खटिया की ओर बड़े, हमने भी झट से रजाई सर के ऊपर तक खीच ली।
पिताजी ने रजाई खीच कर एक तरफ फेंकी और गुस्से में बोले ‘ये कोई समय है उठने का’ अब हम ये न समाज पाये की हम उठे कब, हमे तो उठाया जा रहा है। फिर पांच सौ का नोट हाथ में उठा कर बोले ‘ये देखिए क्या है’
हमने बड़ी मासूमियत से नोट की तरफ देखा और मजाकिया अंदाज में कह दिया ‘पता नहीं क्या है ये, हम तो पहली दफा देख रहे है।’ पिताजी ने एक घुमा के सर पर लगाई और बोले ‘नालायक हमने हसी मजाक करने को नहीं उठाया है आपको, उठो और बाहर की दुनिया में देखिये क्या हो रहा है। किसी ने हमे पाँच सौ का नखली नोट थमा दिया है, और एक आप है की सोने से फुर्सत नहीं।’
अब हमारे सोने का क्या दोस है भला, अभी कुछ सोच ही रहे थे की पिताजी ने एक घुमा के और लगा दिया ‘अब गधों की तरह क्या सोचने लगे, उठिए और दौड़ कर अपने चाचाजी के घर जाइये।’
वहाँ क्या करना है आज’ हमने फटाक से पूछा और फटाक से पिताजी ने एक और हाथ जड़ दिया ‘ये पाँच सौ का नोट उन्हें देना है, अब वो ही इस नोट का कुछ करेगा’
अब जब समज में कुछ न आया तो हमने फिर पूछा ‘भला वो इस नख्लि नोट का क्या कर सकते हैं’ हम इस बार भी पिताजी का हाथ देख रहे थे, किन्तु इस बार उन्होंने मारना जायज न समझा। ‘वो इस नोट को अपने दफ्तर की रकम के साथ निकाल देंगे और इसके बदले हमे असली नोट दे देंगे।’
अब हम बचपन से ही नैतिकता की बाते करने वाले थे, गांधीजी को पसंद तो न करते थे किन्तु उनके प्रयत्न से काफी प्रभावित थे। अब ये बात हमे कुछ जचि नहीं तो हम फिर बोल पड़े ‘किन्तु पिताजी एक बात बताइये, इस तरह ये पाँच सौ का नोट तो हमारे बीच ही रह जायेगा, कही फिर किसी ने आपको दे दिया तो।’ पिताजी ने गुस्से से हमारी तरफ देखा और कुछ कहने वाले ही थे की रुक गए, फिर कुछ सोचा और कहा ‘आपको क्या लगता है इस नोट का क्या किया जाये।’
हम भी असमंझस में पड़ गए क्युकि इसका जवाब तो हमे भी मालूम न था। फिर भी बोल पड़े ‘ये तो हमे नहीं मालूम’
तुरंत पिताजी का जवाब आया ‘हमे मालूम है और आपको बता भी चुके है।’ कह कर पिताजी उठ गए किन्तु हम अभी भी कुछ सोच रहे थे, पितजी ने ये देखा तो उन्हें चुप रहना ठीक न लगा और बोले ‘नियम तो ये है की इस नोट को उसी समय फाड़ दिया जाये जब ये हमे दिखे परन्तु हमे ये नोट डॉक्टर ने दिया है और जब उनके जैसा धनी ये न कर सका तो भला हम कौन होते है, आप खाने को केवल रोटी नहीं मांगते है और न केवल दो जोड़ी कपडे। हमे इस नोट के बहुत सरे फायदे दिखते है इसलिए हम तो इसे फाड़ न सकेंगे। अब ये पाँच सौ का नोट अपना काम तो कर ही रहा है, हम एक नोट को फाड़ेंगे तो एक और आएगा। इसका खात्मा असंभव है। आप जाइये और ये नोट अपने चाचाजी को दे दीजिये और कहियेगा की ये नख्लि नोट है इसे निकाल देना।’ हम खड़े उठे और मुह पे पानी लगा कर चाचाजी के घर को निकल गए
अब सुबह सुबह इस रस्ते पे आने का भी मन नहीं होता है, पुरे रस्ते पे गड्डे पड़े है और उनमे कीचड़। लोगो ने अपने घरो की नालियाँ सड़क की तरफ खोल राखी है और सड़क की नालियों में घर का कूड़ा दाल रखा है, लोग मानते है की यदि घर साफ़ है तो सब साफ़ सुथरा है। अभी दो चार गड्डे पार किये ही थे की एक गाड़ी तेजी से आई और सड़क से सारा कीचड़ हुमरे ऊपर उछाल दिया। हम घूम के कुछ कहते इस से पहले गाड़ी जा चुकी थी। हम किनारे पे लगे नलखे पे जाके खुद को साफ़ करने लगे की क्या देखते है की एक मोटर गाड़ी और आती है और वही से गुजर रहे एक व्यक्ति पर कीचड़ उछाल देती है। हम भी खुद में मुस्कुराये और अपनी कमीज पे लगा कीचड़ साफ़ करने लगे। जब साफ हो गया तो हम चलने को ही थे की क्या देखते है की जिस दूसरे व्यक्ति के ऊपर कीचड़ पड़ा था वह उस गड्डे को मिट्टी से भर रहा था। उसकी अपनी कमीज पे अभी भी कीचड़ लगा था, बहुत अच्छा लगा यह देख के और शर्म भी आई की ये विचार हमारे मन में क्यों न आया, यदि हमने उस गड्डे में मिटटी डाली होती तो इस अच्छे इंसान को तकलीफ न होती, परन्तु हमे तो खुद पे लगी कीचड़ को साफ़ करने की लगी थी। चलो अब किसी और के ऊपर तो कीचड़ न उचलेगी ये सोच के हम जेब में हाथ डाले चाचाजी के घर को चले गए
जेब में पड़ा पाँच सौ का नोट महसूस हुआ तो एक विचार आया, ये नोट भी तो उस कीचड़ की तरह ही है जिसे हम केवल खुद से साफ़ कर रहे है। किन्तु क्या कर सकते है, पिताजी का आदेश जो ठहरा। कुछ देर में ही हम चाचाजी के घर पहुँच गए, चाचाजी के घर में सभी काम बड़े आराम से होते है, सरकारी कर्मचारी जो ठहरे। अभी किसी ने गेट से अख़बार भी न उठाया था सो हम उठा के अंदर चले गए। दरवाजे पर लगी घंटी बजाई और अख़बार की खबरे पड़ने लगे। खबरे रोज एक जैसी ही होने लगी है आज कल, कोई दिलचस्पी नहीं रही, फटाफट हमने एक नजर मारी और फिर एक और बार घंटी बजाई और फिर अख़बार देखने लगे। सामने के पन्ने पे ही आज का विचार लिखा था,
‘बुराई को बढ़ावा देना भी एक बुराई है’
और हमारा ध्यान फिर जेब में पड़े पाँच सौ के नोट की तरफ चला गया और तभी चाची ने दरवाजा भी खोल दिया। ‘अरे क्या बात है, आज सुबह सुबह कहाँ से दर्शन दे दिए अपने।’ चाची जी बोली हमने पैर छुए और अंदर जाकर बैठ गए, चाचाजी भी अंदर से बहार आ गए। पैर छुए और फिर बैठ गए। ‘आज सुबह सुबह इधर कैसे’ चाचाजी ने पूछा कह न सके की किस काम से आये है। हमने निर्णय किया की चाचाजी को न कहेंगे उस नोट के बारे में तो युही कह दिया ‘बस ऐसे ही, यही से गुजर रहे थे तो सोचा आपसे मिलते चले।’ ‘बहुत बढ़िया सोचा’ चाचाजी बोले ‘आओ नास्ता करे’
हम नास्ता करने बैठ गए और सोचने लगे की नोट के लिए पिताजी पूछेंगे तो क्या जवाब देंगे। नाश्ता खत्म हुआ तो चाचा-चाची को प्रणाम कर के घर को निकल गए
घर के पास पहुंचे तो देखा की अब लोग सड़क के बीच से गुजर रहे है क्यूंकि एक भले इंसान ने अपनी कमीज साफ़ करने से महत्वपूर्ण सड़क पर बने गड्डे को भरना समझा।
शायद उसने ये बिलकुल भी न सोचा होगा की घर पर क्या कहेगा की कमीज कहाँ गन्दी हुई। थोड़ी ही देर में हम घर पहुँच गए। पिताजी भी काम पे चले गए थे तो हम भी नहाये और तैयार होकर कॉलेज चले गए। दिन गुजर गया और शयम हुई हम भी घर पहुंचे तो पिताजी हमरा इन्तजार कर रहे थे। अंदर घुसते ही पूछा ‘उस नोट का क्या हुआ’ अब जवाब तो था नहीं हमारे पास परन्तु कुछ तो कहना ही था ‘वो चाचाजी आज दफ्तर जल्दी निकल गए थे’ बड़ी ही हिम्मत से झूट कहा हमने। आज तक न कहा था पर इस नख्लि नोट के कारन यह भी करना पड़ा। ‘ फिर कल सुबह आपको जल्दी उठाना पड़ेगा हमे।’पिताजी बोले और अंदर चले गए।
अब रात को नींद तो कहाँ से आती बस यही सोचते रहे की किसी तरह ये नोट का किस्सा सुलझ जाये। परन्तु हमारे दिल ने बार बार हमे ये गलत काम करने से रोका है, अब ये तो सोच लिया था की अब हम इस नोट को आगे न बढ़ने देंगे। कल ही तो कही सुना था, शायद कल नहीं पर पढ़ा जरूर था,
हमे एक कदम तो उठाना पड़ेगा।
समाज से गन्दिगी बाद में, पहले दिलो डर मिठाना पड़ेगा।
अब तो बस सुबह होने का इन्तजार था। (कहानी समाप्त)
समाज में जब कीचड़ होगी तो वह किसी न किसी को गन्दा जरूर करेगी, बस हमे उसी वक्त उस कीचड़ को साफ़ करने का प्रयत्न करना पड़ेगा। अन्यथा ये समाज का एक हिस्सा बन जाएगी।
राहुल उनियाल
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